Sunday 30 December 2012

नया वर्ष मुबारक हो सबको

 

 

 

 वर्ष 2013 आप सबको मंगलमय हो , सुख समृद्धि दायक हो।



नया वर्ष मुबारक हो सबको  
नई किरणे प्रेरणा दायक हो सबको 
नया प्रभात की नई किरणे 
उमंग पंख लगा दे सबको 
और ले जाये उस ऊंचाई पर 
छू ले आप नई शिखर को 
नया वर्ष मुबारक हो सबको। 

भेद -भाव ,धर्म -धर्म का 
ऊँच -नीच ,जात -पात का 
विषमता जन -जन का 
सबको धरती में दफ़न कर 
उसपर प्रेम का नया पौध लगाकर 
स्वागत करो नया वर्ष को 
नया वर्ष मुबारक हो सबको। 

काल चक्र की गति अविराम 
नया  सहस्राब्दी है जिसका परिणाम 
नई  शताब्दी  के त्रयोदश वर्ष के 
आगमन का शाक्षी हम 
आओ करे मिलकर स्वागत 
नवीन सूर्य की नई किरणों को 
नया वर्ष मुबारक हो सबको। 

नई निशा, नई उषा  
नया सूरज और नई किरण 
आशा, विश्वास  और उत्साह से 
भर दे सबका मन।

नई दिशा हो ,प्रेम की भाषा हो 
आनन्द , ख़ुशी ,सुख ,समृद्धि हो 
छुए आप  सफलता की नई ऊंचाई को 
आओ करे मिलकर स्वागत 
नई आशा ,नया विश्वास को 
नया वर्ष मुबारक हो सबको। 



 कालीपद "प्रसाद "
© सर्वाधिकार सुरक्षित
नोट : यह कविता जनवरी 2000 में मैंने लिखा था। 17 वीं पंक्ति में मैंने परिवर्तन  कर "प्रथम " के स्थान पर" त्रयोदश " किया है।

Tuesday 25 December 2012

जागो कुम्भ कर्णों



मंत्री ,सन्तरी  और 
देश के ठेकेदारों !
जागो!
भारत की आधी जनता 
जाग गई है ,
बचे आधी ने
करवट ले ली है।
कुम्भ कर्णी  नींद से तुम जागो 
समझो कि तुम्हारी प्रिय कुर्सी 
अब हिल रही है।
समय रहते यदि नहीं जागे 
बलात्कार ,अत्याचार 
भ्रष्टाचार  के विरुद्ध 
यदि शक्त जनहित क़ानून नहीं बनाये 
जान लो यह निश्चित 
तुमने अपना कब्र  खुद खोद लिए।
राजनीति का खिलाडी हो,
जनशक्ति को दबाकर 
उसे ललकारते हो ?
लगता है अनाड़ी खिलाडी हो।
क्या कभी तुमने इतिहास पढ़ा ?
जरा  इतिहास के पन्ने पलटो 
या 
यूगांडा ,मिश्र का सैर कर लो 
दादा अमिन का हाल  जानलो 
और 
हुस्न मुबारक का क्या हुआ 
उससे ही पूछ लो। 

मंत्री ,संत्री, सांसद 
सबको आता है आनंद
विदेश  यात्रा में।
अब तुम लीबिया जाना 
जरा कर्नल गद्दाफ़ी का  
ख़बर जानकार आना ,
शायद तुम्हारी नींद खुल जाय 
जानकर बिरादरी का ठिकाना।

बाप बेटे ने मिलकर 
किया औरत की इज्जत को तार तार 
होकर रक्षक बन गया भक्षक 
बढाया भ्रष्टाचार   ।
बेटा गया ,परिवार गया 
सत्ता गई ,उसकी जान भी गई 
सहन शक्ति  जनता की
जब जवाब दे गई।

इतिहास में एक नहीं
अनेक है ऐसे किस्से ,
इसलिए प्यारे कहता हूँ प्यार से।
अँधेरा छट  रहा है  
उजाला आनेवाला है 
आधी जनता जाग चुकी है 
आधी जागने वाली है 
जब सब जाग जायेंगे 
तुम्हारा क्या होगा प्यारे ?


कालीपद "प्रसाद "
© सर्वाधिकार सुरक्षित
कुम्भ कर्णों 



Thursday 20 December 2012

गांधारी के राज में नारी !


                                                               ( गूगल के सौजन्य से )



पढ़ा है महाभारत में
द्रौपदी का चीर हरण हुआ था सभा में
सभी मर्द थे ,पर चुप थे ,भय से ,अचरज से ,
कोई न आया बचाने द्रौपदी को
लाज बचाया केवल कृष्ण  ने।

आज" भारत महान" की राजधानी ....
दिल्ली - पुरातन इन्द्रप्रस्त में
हो रहा है पुनरावृति वही  कहानी की
पर राजसभा अब धृतराष्ट्र की नहीं
अब यह  है गांधारी की।
नारी का राज है
नारी के राज में
नारी ही बेआबरू है
सभा में नहीं
अब सड़क  पर।

नारी बेआबरू है ,
उसकी इज्जत जर्जर है
सड़क पर ,बस में, कार  में ,
रक्षा के आस्था स्थल , थाने में ,
कोई कृष्ण नहीं  आया उसे बचाने  में,
क्योंकि सड़क से राजसभा तक
दु:शासनों का राज है।
सड़क पर,
थाने पर
दू:शासन का ही प्रहरी है
इसलिए नारी निर्वस्त्र होने के लिए
मजबूर है।

कृष्ण हीन द्वारका में
नहीं बचा पाया अर्जुन
गोपियों का मान ,
जल समाधी लिए गोपियाँ
बचाने आत्म सम्मान।

नारियों !जागो !!
यह नहीं  है द्वापर युग
जल समाधी कभी न लेना
यह है कलियुग ,
सशरीर कृष्ण नहीं आया
तो क्या ?
दुर्गा, काली की शक्ति है तुम में
उसका क्या हुआ ?
जगाओ उस शक्ति को
ललकारो दुस्शासनों को ,
न रक्तबीज रहा न महिषासुर
दुराचारी दूस्शासन  भी नहीं रहेगा।
आओ निकलकर घर से
वध करो सब दुस्शासनों  को
तीर ,तलवार ,बन्दुक न बुलेट से
अपना अ-मूल्य  मत पत्र "वेलेट" से।

कालीपद "प्रसाद "
© सर्वाधिकार सुरक्षित       

Monday 10 December 2012

क्षणिकाएँ

अपनी   असफलता   पर, तू न मायूस हो, न गम कर ,
खाई से होकर ही चढ़ते हैं  शिखर पर ,शिखर पर तू नज़र रख।

अपनी कमज़ोरी का तू न नुमाइश कर , उसे पह्चानले ,
याद रख ,वही दिलायेगी सफलता ,तू उसका ख्याल रख।

वाक पटुता है,  शब्द शक्ति है,  शब्दों में मिठास भी है,
गर ये किसी के दिल में दर्जा न पाये ,तो सब ना काफ़ी है।

मन्जिल तक पहुँचने के लिए चलना तो पढ़ेगा ,
लड़ाई जितने के लिए हिम्मत से लड़ना तो पड़ेगा।

जिसने भी हिम्मत हारा ,परीक्षा से मुहँ मोड़ा ,
मिट गया वह ,जग ने भी उसको भुला दिया।


कालीपद "प्रसाद "
© सर्वाधिकार सुरक्षित

Monday 3 December 2012

पर्यावरण -एक वसीयत








हे मनुज !
वसीयत माँगती  तुम्हारी संतति
सुजला   सुफला   धरती
पूर्वजों की धरोहर धरती,
पशु पक्षी के  कलरव से
प्रफुल्लित ,उल्लसित धरती
वृक्ष लता से सज्जित सजीव धरती ,
प्राणवायु से भरपूर और  अमृत जल
जीवन के स्पंदन से स्पंदित धरती।

नहीं मांगती तुम्हारी संतति
वृक्ष लता हीन  वंजर धरती ,
संहारक विषाक्त वायु, अप्राकृतिक निर्झर
सिमटती वन और उजड़ी पर्यावरण

दूषित जल और मुमूर्ष जन
 धरती , जिसमे हो दुर्लभ जीवन।

हे मानव !
लिख दो वसीयत अपनी संतति के नाम
न गज ,न बाजी ,न चाँदी ,न कंचन
केवल हरित धरती ,स्वच्छ जल-वायु
और स्वच्छ पर्यावरण !!!








कालीपद "प्रसाद "
© सर्वाधिकार सुरक्षित




Tuesday 27 November 2012

पर्यावरण



पेड़ लगाओ भाई पेड़ लगाओ
धरती को हरी-भरी बनाओ
पेड़ पौधे लता,धरती का है गहना
हरे गहने से धरती सजती है ,
पेड़ लगाओ ,धरती सजाओ
धरती को हरी भरी बनाओ
पेड़ लगाओ भाई पेड़ लगाओ।

धरती की प्यास बुझाने को
पेड़ ही बुलाता पावस को
पेड़ लगाओ और पावस बुलाओ
जग का प्यास बुझाने को
पेड़ लगाओ भाई पेड़ लगाओ।

पेड़ पौधे  हैं  तो प्राण-वायु है
प्राण नहीं तो धरती बंजर है
पशु ,पक्षी ,मानव सबका
भोजन का आधार पेड़ पौधे हैं
पेड़ लगाओ भाई पेड़ लगाओ।

सुजला सुफला हरित धरती
इसका रक्षक वृक्ष लता है
वृक्ष लता की रक्षा करो और
धरती बचाओ ,धरती बचाओ
पेड़ लगाओ भाई पेड़ लगाओ।

वृक्ष लता है तो सुन्दर वन है
वन है तो पशु पक्षी है
पशु पक्षी धरती की शान है
मनुज प्राणियों में प्रधान है
इन्हें बचाओ, धरती की शान बचाओ।

मनुज का अस्तित्व पर्यावरण है
वन  वचाओ  , पर्यावरण बचाओ
पर्यावरण बचाओ ,अपना अस्तित्व बचाओ
पेड़ लगाओ भाई पेड़ लगाओ।


कालिपद "प्रसाद"
© सर्वाधिकार सुरक्षित 

Wednesday 14 November 2012

हम बच्चे भारत के !








हम बच्चे भारत माँ  के ,चलेंगे सीना तान के
चल पड़े हैं राह में ,नया देश हम बनायेंगे,
विषमता हम मिटायेंगे ,समानता हम लायेंगे,
हम बच्चे  भारत माँ के , चलेंगे सीना तान के।

गाँधी नेहरू चाहे बन जाएँ ,रहेंगे हम भारत के
काम चाहे जो कुछ भी हो , करेंगे हम लगन से,
कोई न छोटा कोई न बड़ा ,ऐसा देश हम बनायेंगे
हम बच्चे  भारत माँ के , चलेंगे सीना तान के।  

देश के लिए जियेंगे हम , देश के लिए मरेंगे
हिन्दु मुश्लिम शिख इशाई, सबसे प्रेम बढायेंगे ,
जात-पात का भेद भाव को , हम बच्चे न मानेंगे ,
हम बच्चे  भारत माँ के , चलेंगे सीना तान के।

भारत एक है ,हम सब एक हैं ,यही हमारा नारा है ,
भारत माँ के हम बच्चे ,हम एक हैं ,हम एक हैं ,
कोई न हिन्दू ,कोई न मुश्लिम ,हम हैं नन्हे भारत माँ के
हम बच्चे  भारत माँ के , चलेंगे सीना तान के।

भारत है सुन्दर फुलवारी ,फुल हैं इसमें न्यारी न्यारी ,
जूही ,गुलाब ,च,म्पा ,चमेली,ख़ुशबू के भाषा में बोली
विनम्र  हैं, कमजोर नही , हम हैं भविष्य भारत के ,
हम बच्चे  भारत माँ के , चलेंगे सीना तान के।

लाल पीले हरे नीले ,रंग-विरंगे फुल हैं खिले
सब गुथे हैं  भारत सूत्र में , जैसे एक माला के मनके ,
प्रण  करते हैं मिलकर सब , तिरंगे को न झुकने देंगे
हम बच्चे  भारत माँ के , चलेंगे सीना तान के।


बाल दिवस के अवसर पर यह गीत भारत के  बच्चों को समर्पित है।

 

कालीपद "प्रसाद'

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Tuesday 6 November 2012

दीप की दुआएँ






मेरी अरमान तुम्हारे हाथ में है
तुम इसकी ख्याल करो ,
मुझे जलाकर तुम्हे ख़ुशी मिलती है ?
मुझे जला दो।
जलना मेरी नियति  है ,
रौशनी फैलाना मेरा काम है .
अँधेरा चाहे कहीं भी हो
उसे दूर करना मेरा फ़र्ज है।
अरमान है, कि दूर करूँ अँधेरा जग का
और जगमगाए यह जग सारा ,
हर दिन हर पल खुशियाँ बाँटू घर घर में ,
हर दिन मनाये दिवाली या दशहरा।

मैं तुम्हे अपनी जीवन ज्योति दिए देता हूँ
इससे तुम अपना मंदिर उजाला कर लो
अमावश् में ख़ुशी ख़ुशी दीपावली मना लो।
अवसर तुम्हारे हाथ में है
तुम अपने घर में उजाला कर लो
या औरों के घर में आग लगा दो
लेकिन मेरी नहीं तो
अपनी अरमान का ख्याल करो।

मुझ पर रहम मत करो
मुझको जलने दो ,
जलने में ही मुझे ख़ुशी है
क्योंकि तुम खुश हो। .
तिल तिल जलकर मैं
अनंत में मिल जाऊंगा
अनंत तक तुम्हारा यश फैले
आशीष यही दिए जाऊंगा।

रौशनी रहे सदा जीवन में तुम्हारे
अँधेरा न कभी छू पाए तुम्हे
अलक्ष्मी दूर भाग जाएँ और
सर पर तुम्हारे सदा लक्ष्मी का हाथ रहे।

दीपावली की हार्दिक शुभ कामनाएं !!!

कालीपद "प्रसाद"
©  सर्वाधिकार सुरक्षित

Saturday 27 October 2012

बटवारा


धरती एक है , 
आकाश एक है,
एक समान है सभी इन्सान ,
जात ,पात ,धर्मों  में बाँट लिया इसे
नादाँ इन्सान।

धरती का जल एक है
आकाश में वायु एक है ,
सबके लिए समान है दिनमान
टुकडो टुकडो में बाँट दिया इसे
नादाँ इन्सान।

ईश्वर ने बनाया धरती को,
इन्सान  ने बाँटकर  देश बनाया,
नगर ,शहर ,गाँव हैं,  बटवारे का अंजाम।
टुकडो टुकडो में बाँट दिया धरती को
नादाँ इन्सान।

ईश्वर वही, अल्लाह वही है ,
वही है गॉड , वाहेगुरु हमारे
मंदिर ,मस्जिद ,गिरजाघर में
वही है   गुरूद्वारे में।
पहनकर रंग-विरंगे चोले
भ्रमित हुए इन्सान,
अलग अलग नामों  में बाँट लिया ख़ुदा को 
नादाँ इन्सान।

प्रेम ही पूजा है, प्रेम ही भक्ति है ,
प्रेम ही आधार है सृष्टि का ,
प्रेम ही तो मूल मंत्र है
क़ुरान का, बाईबिल का .
सूफ़ी और संत वाणी का ,
जानकर भी अनजान है इन्सान,
टुकडो टुकडो में बाँट दिया इन्सान को 
नादाँ इन्सान।

भगवान को बांटा ,इन्सान को बांटा ,
बाँटी धरती के सम्पद सारे ,
तृष्णा न मिटी इन्सान की
बाँटने चले चाँद सितारे,
क्या होगा इस बटवारे का अंजाम
इंसान को बता दे हे भगवान !
अन्धाधुन  में बाँट चला सब 
नादाँ इन्सान।

रचना : कालीपद "प्रसाद"
©  सर्वाधिकार सुरक्षित

Tuesday 16 October 2012

आह्वानी !



हे माँ दुर्गा !
आओं तुम दुर्गति नाशिनी !
नाश करो दु:ख कष्ट पीड़ित मानव का
हे सिंह बाहिनी !

आओं तुम दुर्गा  रूप में
रक्षा करो नीरिह  जन को और
बध करो कालेधन के स्वामी-महिषासुर को।

आओं तुम काली रूप में
रक्तहीन करो पीकर रक्त
भ्रष्टाचारी रक्तबीज को।

आओं तुम हंस-बाहिनी  सरस्वती रूप में
परहित, जनहित भाव का संचार करो
स्वार्थी ,लोभी ,भ्रष्टाचारी शासकों में।

आओं तुम लक्ष्मी रूप में
अन्न की थाली लेकर हाथ में
बनकर अन्नपूर्णा गरीब के घर में।

विघ्न हरो सब शुभ काम में
लेकर साथ गजानन को,
रक्षाकरो भक्तों को दुष्टों से
लेकर साथ षडानन को।

हिंसा,द्वेष,ईर्षा,ज्वलन,घृणादि के विष से
ज़र ज़र है यह जगत,
नीलकंठ को भी साथ लाओ माँ
पीकर विष , निर्विष करने यह जगत।

स्वार्थी है पुत्र तेरा ,पर अवोध है, ज्ञानहीन है
यह तन, मन, धन, सब कुछ तो है "पद-प्रसाद " तेरा।

शरद ऋतु,आश्विनमास,शुक्ल-पक्ष-प्रतिपद
नतमस्तक स्वागत करते हैं तुम्हे
हे माँ नौ-दुर्गे ! मिलकर इष्ट मित्र सब।

        !!! जय माँ दुर्गा !!!


कालीपद "प्रसाद "
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Friday 5 October 2012

कुछ बिखरी मोतियाँ

                                                       


                                                                     नारी !

अबला नहीं तुम , सबला हो
            शक्ति संचारिणी रूप हो
अपने को पहचानो , तुम राख़ नहीं
            राख़ में छुपी आग हो !!


                                                             


                                                                                                                              दोस्त !





दुश्मन तुम्हारा नादाँ दोस्त है
तुम चाहो तो, उससे दोस्ती कर लो ,
दोस्ती है गर, तो दुश्मनी की तरह निभा लो ,
दोस्त नादाँ है ,तुम नादानी अपनी छोड़ दो।

    

                                                            
                                                                        


                                                                                                              मज़ा !





डरने में जो मज़ा, वो डराने में कहाँ ?
भागने में जो मज़ा, वो भगाने  में कहाँ ?
मुझको उलझन में डालने वाले मेरे मित
नज़र चुराने में जो मज़ा, वो मिलाने में कहाँ ?


                                                               





                                                           


                                                                                                                वाह ! वाह!!




इस बेगुनाह दिल पर तुम ने
                   बेरहमी से नैन का वार किया ,
और जब निकली आह इसकी
                   तुमने जी भरके वाह ! वाह !! किया।






कालीपद "पसाद "
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Wednesday 26 September 2012

आपके लिए








मथकर शब्द महासागर को ,लाये हैं  कुछ नग चुनकर आपके लिए।
इन्हें कंकड़ कहें या हीरे मोती ,हैं सब आपके लिए।

हैं इसमें काँटे , फूल भी हैं ,फूल की ख़ुशबू आपके लिए।
इसमें हैं ईर्षा-द्वेष,झगड़ा-विच्छेद, किन्तु सन्धि सदभाव आपके लिए।

इसमें हैं शत्रु , शत्रुता भी है ,परन्तु मित्र औरमित्रता  है आपके लिए।
क्रोध,घमण्ड,दम्भ,अहंकार,अभिमान छोड़,प्यार का सन्देश है आपके लिए।

इसमें हैं करुणा , वीर ,वात्सल्य और है हास-परिहास ,
रौद्र ,विभत्स ,भयानक  छोड़ ,केवल भक्ति भाव है आपके लिए।

श्रृंगार ,साज-सज्जा ,माधुर्य और
 मीठी मुस्कान, सब हैं आपके लिए।

जूही ,चम्पा ,चमेली फूलों से सजी डाली
और श्रद्धा सुमन-माला है आपके लिए।

घृणा ,भय ,वितृष्णा को दूर कर,प्रेम की ज्योति जलाया है,
घर में, मन में , फैला अँधेरा दूर हो,यही दुआ है आपके लिए।

गरीब से प्रेम के दो बात कर लो ,भक्त हो जायेंगे सदा के लिए,
हज़ार दुआ निकलेगी दिल से उनके , और कृतज्ञता आपके लिए।

संकोच छोड़ ,दृढ़ संकल्प से हाथ बढ़ाओ दोस्ती के लिए
वुद्धि, विवेक ,सुविचार ,सफलता लायेंगे आत्मविश्वास आपके लिए।


कालीपद "प्रसाद "
सर्वाधिकार सुरक्षित


Monday 17 September 2012

स्मृति के पन्नों से





मधुस्मृति के पुरातन लतिका  को
जब झक -झोर डाली
वृक्ष से पके फल की भाँति
कुछ मीठी यादें  टपक पड़ी।
एक पर जब नज़र डाला
तो स्मृति के कुछ पन्ने खुले ,
देखा ,
मेरा गाँव प्यारा प्यारा
औरमैं था  गाँव का प्यारा।

 जंगल के किनारे
 गाँव के छोटे -छोटे बच्चे
जंगल में करते थे सैर सपाटे,
भर जाते थे मन प्राण उनके
वनफूलों के सौरव से।
कभी चंचल -चपल खरगोश के पीछे   भागते ,
कभी ताली बजाकर पक्षी उड़ाते,
कभी झर -झर बहती झरनों के जल  में भीगकर
जलकेली का आनंद लेते।

पर जीवन की आपा धापी में
गुजर गये चालीश साल ,
न आनंद ले सके प्रकृति का
न जान सके दोस्तों का हाल।
कर्मक्षेत्र से अवकाश मिला तो
चले गाँव की ओर ,
दोस्तों से मिलने और
देखने जंगल में मोर।

गाँव गये , मिले दोस्त से ,
और बतियाये देर तक प्यार  से।
मैंने कहा ," तुम्हारी कमी खलती थी अरसों से "
दोस्त बोले " अच्छा लगा तुम लौट आये ,
पर मन न लगेगा तुम्हारा यहाँ
छोड़ गये थे जो गाँव तुम, अब वो कहाँ ?
जहाँ हम घूमते थे,
छुपा -छुपी खेलते थे ,
मिटगई सब वो गाँव की यादें
कट गये जंगल सारे ,
न पीक है , न कोई पक्षी हैं ,
पशु-पक्षी हीन होगये जंगल ,गाँव हमारे।
निरीह प्राणी सब भाग गये हैं
केवल दो ही प्राणी बचे हैं।
अब यहाँ
रात को सियार हुआ हुआ चिल्लाते हैं,
दिन में सफ़ेद पोश चीते
डरावनी आँख  दिखाकर हुंकार भरते  हैं ।
उनके उत्पात से गाँव परेशान है।"

देखा गाँव , देखा जंगल
देखा इनमें परिवर्तन ,
किन्तु कहता हूँ ,"यह अच्छा है,
कम से कम ये असली रूप में हैं,
कौन सियार और कौन है चीता
इसका तुम्हे पहचान है।

हम तो कंक्रीट के जंगल में रहते है
वहाँ नहीं पता,
 कौन है सियार और कौन है चीता,
सब पर लगा है मुखौटा
कोई किसी को नहीं पहचानता ,
वहाँ शेर हो या सियार
सब पीते हैं पानी एक घाट पर।
अपने आपको समझते हैं सबसे होशियार
और दिखाते हैं आपस में अटूट प्यार ,
किन्तु एक दूसरे पर झपट मारने की
मौके का करते हैं इंतजार।

हैं यहाँ कुछ चीते कुछ सियार
पर वहाँ हैं सब नील सियार
ये नील सियार हैं बहुरूपिये
मौके के अनुसार
बन जाते हैं नील सियार
कभी चीता ,कभी शेर , कभी बब्बर शेर
और करते हैं
भीत , त्रस्त , निरीह प्राणी का शिकार।


कालीपद "प्रसाद"
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Tuesday 11 September 2012

मैं एक पथिक हूँ !





मैं पथिक अंतहीन अनजान राह का 


मैं एक पथिक हूँ
ऐसा पथ का
जिसका न कोई शुरू है , न कोई अंत।
सुना है ग्रह ,नक्षत्र ,तारे भी
चल रहे है अनन्त काल  से अपने अपने पथ पर
लेकिन उनमें  और मुझमें है एक अंतर।

वे थकते नहीं ,सोते नहीं ,चलते ही जाते हैं
अपने अपने निश्चित राह  में, निश्चित गति से।

मैं एक राही हूँ अन्जान राह के
अनगिनित राही चल रहे हैं साथ साथ
मैं भीड़ में हूँ या भीड़ मेरे साथ ?
नहीं पता ...
पर मैं चलता जाता हूँ
चलते चलते,  थक हारकर
रास्ते में ही सो जाता हूँ
एक गहरी, लम्बी निद्रा में।

न जाने कितने बार सोया
कितने बार जागा
कुछ भी याद नहीं मुझको।
पर एक बात मुझे याद है ...
"हर बार जब सोकर उठता हूँ
अपने को एक नये लिबास में ,
और एक नये  रास्ते में पाता हूँ।"

रास्ता नया, मुसाफ़िर नये
यार दोस्त नये ,हमसफ़र नया
उनसे नये वादे करता हूँ ,
चिरकाल साथ रहने की क़सम खाता हूँ ,
पर सब कसमे वादे टूट जाते हैं
सायंकाल में आँख मुदते ही(मृत्यु ),
 सब कुछ भूल जाता हूँ।

फिर एक नई राह ,नया सवेरा
करता है इन्तजार मेरा।(पुनर्जन्म )
नहीं पता कब तक चलते  जाना है
कितना रास्ता बाकी है ,
कहाँ जाना है ?
कहाँ इसका शुरू,कहाँ इसका अन्त ?
किसी ने न सुना ,  किसी ने न जाना इसका वृतान्त .
जिस से पूछो "जाना कहाँ है?'
उत्तर मिला "वहीँ जहाँ हमारे पूर्वज गए हैं।"
वहाँ बड़ा कड़ा पहरा है
जागते हुए  कोई जा नहीं सकता
चिर निद्रा में सोकर ही जा सकता है।


कालीपद "प्रसाद "
©  सर्वाधिकार सुरक्षित



Thursday 6 September 2012

संवेदनशीलता







लाजवन्ती 


छोटी-छोटी हरी-हरी पत्तियों  की हथेली फैलाकर
हवा के झोको से बलखाती हुई
मानो,
हंस-हंस , हाथ हिलाकर कहती सबको
छुओ ना, छुओ ना, कोई मुझको,
मुहँ छुपा लुंगी हथेली में
अगर छुओगे तुम मुझको। .
मैं नाजुक हूँ,
मैं शर्मीली हूँ ,
मैं संवेदनशील हूँ ,
मैं लाजवन्ती हूँ।



सूरजमुखी



एक  सूरजमुखी का फूल
सूर्य दर्शन में आकूल
सुबह सुबह पूर्व दिशा में
सूरज की प्रतीक्षा में
सहस्र स्वर्ण पंख फैलाकर
अविकल सूर्य की प्रतिबिम्ब  बनकर
खड़ा है लोहित  किरणों की स्वागत में।

पूरब के उदयाचल से पश्चिम के अस्ताचल
सूरजमुखी निहारता सूरज को हर पल ,
सूरज के अस्त होते ही
सूरजमुखी झुक जाता है,
नत मस्तक होता है, दू:ख से
यह प्रकृति का सम्वेदनशीलता नहीं, तो और क्या है  ?

पशु-पक्षी, वृक्ष-लता
सब में है सम्वेदनशीलता ,
मनुष्य संवेदनशीलता में शीर्ष में है
पर उसमे इतना विरोधाभाष क्यों है ?
वह दूसरे का खून का प्यासा क्यों है?
समझ में नहीं आता।

बंदूक से निकली  गोली
किस दिशा में और कहाँ चली ?
किसको घायल किया ,किसको मारा ?
हिन्दु ,मुसलमान ,शिख  या इशाई को .......
नहीं पता ,नहीं पहचानती  वह किसी को
पहचानती केवल उसको---
जो उसे चलाता है और
जो उसके सामने आता है।
चलाने वाले से आदेश लेती  है
सामने वाले का सीना को छलनी करती है।

आतंकी कहता है वह मुसलमान है
मुसलमान के लिए खून बहाता  है ,
उलेमा कहते हैं यह सच नहीं,
निरपराधी का खून  बहाना
मुसलमान का  ईमान नहीं।

ताज , ओबेराय को मिटाना चाहा वे
पर मिटा न पाया अस्तित्व इनकी।

ख़ुद मिट गए वे जिनके लिए
मुहँ फेर लिए  सब आका उनके, और
दो गज जमीं न मिली कब्र के लिए।

ऐ भटके हुए इंसान ! संभल जाओ अभी
मत मानो हमें हिन्दु ,मुस्लिम , सिख ,ईसाई
हम सब है भारत माँ के सन्तान , है भाई-भाई।

तुमने,
परिवार से रिश्तों का महत्व न समझे,  न सही
समाज से सदाचार न सीखा , न सही
धर्म से प्रेम का पाठ न सीखा , न सही
पर इंसानियत को मत भूलो तुम
अपने को' भटके हुए इन्सान' समझो ,आतंकी नहीं
लौटने का मार्ग खुला रहेगा  ,बन्द नहीं।



कालीपद "प्रसाद "

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Monday 3 September 2012

प्रेम क्या है ?**







जिसने भी किया "प्रेम "को सब्द जाल में बाँधने की  दावा
निकल गया "प्रेम' उस बंधन से जैसे बंध  मुट्ठी  से हवा।

"प्रेम" न तो कोई हवा , न तरल , न घन रूप  
मानता नहीं कोई बंधन , जात ,धर्म या रंग रूप।

"प्रेम "  अदृश्य है ,पुष्प गंध जैसा भर देता है मन
एक एहसास है ,एक अनुभूति है , कहते हैं ज्ञानीजन।

कितना भी प्रयास करो ,कोई भी दो परिभाषा
शब्दों में व शक्ति कहाँ , बोल पाए " प्रेम " की भाषा।

"प्रेम "  दिल में रहता है ,यह ख़ुशबू   है दिल का
भरलेता है अपने आग़ोश में, जैसे  ख़ुशबू गुलाब का।

"प्रेम" और "ईर्षा"  सौतन हैं ,रहती साथ -साथ दिल में
रिश्ता उनके वैसे  ही है जैसे , दो तलवार एक म्यान में।

सब चाहते हैं जीवन में उसके, "प्रेम" की धारा बहती रहे
दुष्ट "ईर्षा" घुसकर औरों में ,खड़ी हो जाती प्रेम के मार्ग में।

पर निकली जो एकबार उद्गम से ,रुकी नहीं कभी प्रेम की धारा
प्रमाण उसका है अनेक जैसे , लैला- मजनू और हीर-राँझा।

"ईर्षा" ने मार डाला लैला- मजनू जैसे कितने प्रेमी युगल को
पर "प्रेम" हो गया अमर , एहसास है इसका सारे जग को।

"प्रेम" शाश्वत है ,अदृश्य है ,
पर एहसास इसका है प्रकृति में
माँ के प्रगाढ़ चुम्बन में और
 उसके  गुन गुनाते  लोरी में।

चोंच से दाना चुगाते चिड़ियों में,
  बछड़े को दूध पिलाते गायों में
प्रेमी युगल के विरह में ........
............., उनके पुनर्मिलन में ,

फूलों पर मंडराते भौरों में ,
 राखी बांधते  भाई बहन की आँखों में,
न जाने कहाँ .....??? 
कितनो में ......???
 किस रूप में .....???

कोई नहीं जानता प्रेम की प्रकृति
केवल है  एक एहसास ...
एक अनुभूति ...!.

"प्रेम" का बीज  दिल में रहता है ,
जब फूटता है ....,
बह जाता है झरनों की तरह कल-कल ,झर -झर ,
शब्दों का हो या  और का ,बंधन नहीं कोई  उसे स्वीकार ,
"प्रेम" उन्माद है , उन्मुक्त है ,वेगवान है ,
आपको है, मुझको  है ,  सबको है ,एहसास यही  ,
 इसके सिवा और कुछ नहीं , प्यार है यही ।

प्यार अँधा है, प्यार ज्योति है ,
जब जल उठता है .......
जग-मग हो जाता है मन का आँगन
मन-मयूरी नाच  उठता है और
पतझड़ में एहसास होता है वसन्त का आगमन,
चंचल और बेकाबू हो जाता है मन,
 यही है प्यार !
इसको कौन करेगा इंकार ?

प्रेम श्रद्धा है ,प्रेम भक्ति है
प्रेम ईर्षा है ,प्रेम शक्ति है
प्रेम त्याग है , वलिदान भी है
प्रेम स्वार्थ है ,नि:स्वार्थ भी है
प्रेम संजीवनी है !
मुमूर्ष को जीवित करने वाला
"प्रेम" महा मृत्युंजय मंत्र है।


कालीपद "प्रसाद"
©  सर्वाधिकार सुरक्षित






Friday 31 August 2012

दिल की सूनापन से प्यार




दरवाज़ा  खोलने में डर लगता है 

इधर भीड़ उधर भीड़ , जिधर देखो भीड़ ही भीड़ है
मगर इस भीड़ में     हर कोई अकेला है।

बचपन बिता  उछलते  कूदते  दोस्तों में अनेक
बुढ़ापा घसीट  रहा है तन को दोस्त नहीं कोई एक।

रंग विरंगे फूलों के तस्वीर जो आते थे सपने में
न जाने कहाँ खो गए वे मन के विराने में।

चले थे सफ़र में, अकेला ही अकेला
मुसाफ़िर बहुत मिला , दोस्त कोई न मिला।

यह भ्रम था! ,सपना था! कि "रिश्तों में बंधे हैं "
बिखर गए सब रिश्ते ,जब आँख हमने खोला।

सुना है  सब ज़ख्म का दवा है वक्त , वक्त को दो कुछ वक्त
बचपन , कौमार्य , जवानी गई ,गया नहीं बुढ़ापा कमबख्त।

दिल    की   सूनापन  से प्यार  की ,    हालत   क्या   कहे
दरवाज़ा  खोलने में डर लगता है ,कहीं मेहमान न आ जाये।

चिराग जलाया था प्यार  से कि घर में रोशनि  करेगा
बद  नसीबी देखो, कि कोई उसको चुरा के ले गया।

अँधेरा तब भी था, अब भी है , हो गया है गहरा
अँधेरी रात ख़त्म अब , शायद आ रहा है सबेरा।


कालीपद "प्रसाद'
 ©  सर्वाधिकार सुरक्षित






Monday 27 August 2012

मैं एक अपूर्ण शिक्षक हूँ !


कौन महान वृत्त और कौन लघु वृत्त ?


शिक्षक हूँ  गणित का
कक्षा में जाता हूँ ,
पर समझ में नहीं आता
किन प्रश्नों को हल करूँ ?
टेक्स बुक में लिखे हुए
कुछ सीमित  अपदार्थ पश्नों को
या अंतिम कतार में, फटे पुराने कपड़ों में
जीवन जिग्घासा में , मौलिक प्रश्नों के साथ
अनेक भारों से लदकर
बने हुए उस    प्रश्न वाचक चिन्ह को ?

पढ़ाना है वृत्त ,
वृत्त का परिभाषा मैं क्या दूँ ?
किस वृत्त को मैं महान  वृत्त कहूँ ?
और किसको लघु वृत्त ?
मुझे  तो सब दीखता है एक समान।
दनों ही सीमित  है ,दोनों ही असीमित है ,
दोनों का शुरू वही है , अन्त भी वही है   ,
केवल अन्तर है पथ का
आपके और मेरे मत का ,
आप शायद दोनों प्रश्नों को हल कर दें ,
पर मैं ???
मैं एक अपूर्ण शिक्षक हूँ
क्योंकि दोनों में से
मैं एक  प्रश्न का जबाब  दे सकता हूँ।
दूसरा  प्रश्न सामने आते ही
अपने  अधूरे  ज्ञान को छुपाने के लिए
उसे डांट कर बैठा देता हूँ।

शिक्षक हूँ !
इसलिए एक ही प्रश्न का जबाब जनता हूँ।
अगर नेता होता .............
सभी  प्रश्नों का हल निकल लेता।
प्रश्न तथा प्रश्न वाचक चिन्ह
दोनों को एक साथ मिटा देता।

पहले उसके मुहँ पर कुछ दाना  फेंक कर
उसका मुहँ बन्द कर देता,
फिर आश्वाशन की झड़ी लगाकर
उसकी गरीबी मिटाने की भरोषा देता ,
इसपर भी यदि  वह  नहीं मानता  
तो गरीब  को ही मिटा देता।
इत्तेफ़ाक से यदि कोई
गरीब बच जाते........
तो
उस से कहते , आओ
हमारे साथ मिल जाओ
कांग्रेस या जनता ,
अकाली या भजपा ,
किसी से भी हाथ मिलाओ
और काली कमाई से धनवान बन जाओ,
संसद में चाहे हम किसी के
कितने भी करें खिचाई
और पार्टी चाहे कोई भी हो
हम सब हैं मौसेरे भाई।






रचना : कालीपद "प्रसाद "

©  सर्वाधिकार सुरक्षित



Tuesday 21 August 2012

द्वन्द




पत्थर (पुरुष प्रकृति) :(छबि - सौजन्य -गूगल )

अबले  ! हँसाया मुझको तुने
क्या कहूँ  इस दुनिया में
अनगिनित अवलायें
रखती आई है
कितनी ऊँची-ऊँची अरमाने
जैसा कि तुमने ख्याब देखा
इस पत्थर दिल को पिघलाने
अबले ! हँसाया मुझको  तुने।

देखा कभी तुमने क्या ?
पतंग दल ने आग बुझाया ?
कुसुमदल कभी काँटों के द्वंद में
रहा क्या अक्षत , प्रस्फुटित पूर्व रूप में ?
प्रभंजन की भीम लड़ाई में
क्या किया वनराज ने ?
अबले ! क्या किया तुमने घन रूप में ?

सुना नहीं तुमने क्या ?
वज्र सदृश मेरी कठोरता
विन्ध , हिमालय ,हिमाद्री आदि
टिका है मुझ पर ,मैं हूँ किरीटि ,
तुम भी मेरी देख कठोरता
बन जाती हो हिम, त्याग कोमलता
पर मलय ,सुमंद पवन
और सूर्य प्रताप किरण
पिघलाए तुम्हे ,बह गई, न पाई रहने
अबले! मुझ में क्या परिवर्तन देखा तुमने ?


पानी की धारा ( नारी प्रकृति ):   
सत्य है, जो कुछ तुमने कहा, झूट नहीं,
पर गिरि-श्रृंग चिरकर
बहती क्या झरना नहीं?
यदि तुम  कठोर मैं कोमल,
मुझमे  अगर शक्ति नहीं ?
बना लेती राह  कैसे अपनी ,
मैं सबला  , अबला नहीं।

देखा नहीं तुमने क्या
मेरा वह रूद्र रूप ?
कितना भयंकर , विभीषिका पूर्ण
और कितना  ही विद्रूप ,
क्षण भर में बहा लेती मैं
करती सबको निमग्न यहाँ
न दिखते तुम,न दिखाई देती हरियालियाँ
न दिखता हिमालय यहाँ।

पर स्व-धर्म पालन करती हूँ मैं
निर्झर झर -झर  बहती हूँ ,
अपनी शान्त तरल गति से
धरती को शान्ति देती हूँ ,
कोमलता ,धैर्य और सहनशीलता
का प्रतिक हूँ मैं ,
कर सकती हूँ असाध्य साधन
अवोध मानवों को सिखलाती  हूँ।




रचना : कालीपद "प्रसाद "
            ©  सर्वाधिकार सुरक्षित 




Tuesday 14 August 2012

मैं आत्मा हूँ





 

"आत्मा अमर है। यह न तो जनम लेता है न मरता है , न मारा जाता है। न इसे अस्त्र काट सकता है ,न आग इसे जला सकता है और न पानी उसे भिगो सकता है , न वायु उसे सुखा सकता है क्योंकि यह अजन्मा , नित्य ,शाश्वत  और पुरातन है। केवल शरीर  का ही नाश होता है।" यही बात भगवन श्री कृष्ण ने गीता के द्वितीय अध्याय में श्लोक 19, 20, 23 के माध्यम से अर्जुन को समझाया है। इसीको मैं अपने शब्दों में पिरोने की कोशिश की है।
                                                                   
                                                                         मैं आत्मा हूँ


यह शरीर थक सकता है
मैं कभी थकता नहीं ,
यह शरीर  मर  सकता है
मैं कभी मरता नहीं।

यह शरीर जनम लेता है
मैं कभी जनम लेता नहीं ,
यह शरीर घटता बढता है
मैं कभी घटता बढता नहीं।

मैं इस  पिंजड़े का वासी हूँ
किन्तु आजाद हूँ , पराधीन नहीं ,
मैं जब चाहूँ उड़ जाऊं
मुझे रोक कोई सकता नहीं।

यह हिन्दु , वह मुसलमान
तू बौद्ध , मैं क्रिश्चियन
ये सब तो  मन का भ्रम है
मैं इनसे भ्रमित नहीं।

जाति ,धर्म , आकार , वर्ण के
बंधन में है यह काया
सदा विद्यमान हूँ ,इस कोठरी में
पर मुझे कभी कोई बांध न पाया।

जीवन संघर्ष की प्रेरणा हूँ मैं
संघर्ष करता है यह शरीर
जय पराजय का श्रेय इसे है
कर्म फल भोगता यही , मैं नहीं।

तुम आकर्षित हो देखकर मेरा सुन्दर चेहरा
आँख मूँद लेतो हो घृणा से , कुरूपता भाता नहीं ,
रूप , कुरूप  तो काया का है
मेरा तो कोई रूप नहीं।

आँख है पर अँधा है शरीर
आँख की ज्योति मैं हूँ ,
कर्म करवाता इस से , मेरा
कर्म फल पर आश नहीं।

जल नहीं भिगो सकता कमल को
पर सदा रहता है जल में ,
वैसा वास मेरा इस शरीर में
स्नेह है , प्यार है , पर मोह नहीं।

निरन्तर चलता हूँ ,चलता जाता हूँ 
रुकता कभी नहीं मैं ,
चलना ही जिंदगी है ,रुकना मौत है
चलते चलते ,गिरते ,उठते
काया ही थका , हारा , विखरा
           मैं नहीं।

रचना : कालीपद " प्रसाद "
          ©  सर्वाधिकार सुरक्षित


















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Wednesday 8 August 2012

नव-जीवन










एक पीला पत्ता, पेड़ से टुटा 
हल्का हवा का एक झोंका
उसे ले उड़  चला.........
झूलते  रहे  वह हवा के झूले में   
कभी ऊपर कभी नीचे
कभी धरती  पर गिरे, फिर उड़े
और खाते रहे समीर के थपेड़े.
किस  साख  से  टुटा? उसे नहीं पता 
जाना कहाँ ? नहीं है ठिकाना
लाचार बेबस तक़दीर  का मारा, बेचारा
उड़ना, गिरना , रुकना सब में
केवल समीर का सहारा.

कालचक्र की गति को कौन  रोक पाया ?
जीवन के प्रतीक   हरा पत्ता पीला हो गया.
साख से जो था अटूट बंधन
एक क्षण में ही वह टूट गया  .
मलय पवन उठाके अर्थी उसकी
धरती के गर्भ में कर  दिया दफ़न
और सर  झुककर चढ़ाया कब्र पर
स- बीज एक श्रद्धा - सुमन .

समय चक्र था गतिमान
पावस ने कराया अचेतन बीज  को
मधुर मधुर अमृत पान
हरित हो गया कब्र का आँगन.

लेकर पीले पत्ते की शक्ति
और लेकर उसका छुपा  हरा - यौवन
फुट पडा बीज अंकुर रूप में  और
प्रस्फुटित हुआ पौधा  एक नया
लेकर जीवन का  नयापन,
पत्ते को मिला एक नव् - जीवन
यही   है , यही है , यही है
प्रकृति का नियम ..........


रचना : कालीपद "प्रसाद "
          ©  सर्वाधिकार सुरक्षित





Monday 6 August 2012

प्रिय का एहसास

 


जीवन के मरुस्थल में प्रिये
                                  तुम ही प्याऊ हो ,
नीरस जिंदगी में तुम                             
                                 मधुमय  रस हो,
टूटते लय की  जिंदगी में ,
                                   तुम जीवन संगीत हो,
वायु है ,जल है तुम हो प्रिये
                                 तभी तो मुझे तुम्हारा खुसबू का एहसास है.

मेरे बेचैन मन की चैन हो ,
                                  सुप्त अचेतन मन की चेतना  हो ,
अविरल स्पंदित   मेरे दिल का 
                                  तुम स्पंदन हो,
क्या कहूँ   शब्दों में , एहसास करो
                                  की तुम मेरे क्या हो ?



रचना : कालिपद "प्रसाद " 
© All rights reserved (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 29 July 2012

प्यार - महाऔषधि


प्यार - महाऔषधि
व्याकरण वाणी का दोष दूर करता है,
वैद्य का दवा तन का दोष दूर करता है,
योग विद्या तन -मन का दोष दूर करता है,
"प्यार " तन - मन - वाणी, सबका दोष दूर करता है।


नेताजी की समझ

समझ समझ का फ़ेर है
समझ सको तो समझो ,
मतलबी दुनिया है यह
अपना मतलब  को समझो
अपना मतलब न तो,  न समझो।

कालीपद "प्रसाद "
© All rights reserved

Tuesday 24 July 2012

अनुभूतियाँ

                                                                         अनुभूतियाँ

इन्सान हूँ , रिस्ता जोड़ा था उस से
समझकर एक इन्सान,
इन्सान के रूप में लोगों को
मिलजाते हैं भगवान ,
यह मेरी बद नसीबी नहीं  तो और क्या ?
मुझे मिला इन्सान के रूप में एक हैवान।

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यह दुनिया धुप छांह का खेल है ,
कहीं ख़ुशी तो कहीं गम है।
गम को भुला दो , खुशियों को समेट लो ,
जो न मिला उसकी शिकवा न करो
जो मिला उसको महसूस करो।

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एक विन्दु है और
एक सिन्धु है।
सिन्धु को अभिमान है कि
उसमें असंख्य जल विन्दु हैं ,
विन्दु को गर्व है कि
वह सिन्धु का उदगम है।

                 




कालीपद "प्रसाद " 
© All rights reserved    
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Monday 23 July 2012

MAHAMAHIM PRANAB MUKHERJEE , THE 13 TH PRESIDENT


           The Election of Sri Pranab Mukherjee to the Office of President of India is an Honour not only to Sri Pranab Mukherjee but also to those people who are Honest & committed to their works and insist on PROPRIETY in administration. He will be one of those Presidents who have vast experience of functioning of Indian Parliament and the other Government institutions.
            His encyclopaedic memory,rich knowledge of the fuctioning of democratic institutions,skills of resolving sophisticated political issues will make make him different from other Presidents. Though he is the most deserving candidate to be Prime Minister of India, he is denied this opportunity due to political reasons.
            As President of India , he is no longer a member of any  political party or any alliance. He is the custodian of "The Costitution" the pillar of Democracy. People's expectations are very high. They don't want him to be a rubber stamp. He should exert himself on different issues brought to him for his approval, within the provisions of the constitutional power bestowed upon him, to safegaurd the interest of the common man. His kowledge, experience and skills must leave an unforgetable mark in the process of making India ,a corruption free country.

CONGRATULATIONS TO MAHAMAHIM PRANAB MUKHERJEE
& BEST OF LUCK

Kalipad "Prasad"
23rd July 2012 

Sunday 22 July 2012

मृग-मरीचिका

जिन्दगी के सफ़र में
हम मन्जिल की ओर बढ़ने  लगे
कदम दर कदम संभलते रहे ,
और किस्तों  में दूरियाँ नापते रहे .
अफ़सोस मंजिल हम से दूर भागती रही ,
हमे तेज और तेज भगाती रही।

मंजिल जिसको मैं समझा था ,
व मजिल नहीं थी।
एक पड़ाव था ? या मृग-मरीचिका थी ?,
आखों का दोष था? या समझ का फ़ेर ?
जब समझा , देखा , मेरी जिंदगी (मंजिल )
मेरे सामने खड़ी थी।

जिसको मंजिल को पाना है
व शिकवा नहीं करते ,
जो शिकवा में उलझते हैं
व मंजिल नहीं पाते .


रचना :  कालीपद "प्रसाद "  
©All rights reserved

Sunday 15 July 2012

मंजिल तुम्हे मिल जायगी।



ऐ मेरे आँगन के चाँद सितारे
नजर उठा कर देखो आसमान में
उमड़ते घुमड़ते कुछ बादल  में
छुपते छुपाते सूरज के सिवा
कुछ नजर नहीं आयगा नीलाम्बर में।
पर यह सच नहीं है ,यह नजर का धोखा है।
जो दिखाई देती है सच  केवल वही नहीं और भी है।
जरा सूरज  को अस्ताचल में  छुपने दो ,
फिर नजर घुमाओ आसमान में
तुम देख पाओगे आकाश गंगा में,
झिलमिलाते तारों के बारातियों में
खो जाओगे तुम अचरज में
तारें तरिकायों के महोत्सव में।

असंख्य तारों में तेज  चमकते एक तारा
उत्त्तर दिशा को करते हैं इशारा
नाम है उसका ध्रुव तारा।




पुकार पुकार कर वह , मानो
कह रहा है तुम   से , अपनी चमक से  ,
"उठो , जागो ,  भ्रमित मत हो ,
मैं भी एक नन्हा बच्चा था
तुम्हारी तरह माँ का दुलारा था।
पर  सब को छोड़कर, बन्धनों को  तोड़कर
दिल  में अटूट विश्वास लिए
मन में द्रीड संकल्प लिए
चल पड़ा था दुर्गम राह पर
अपने लक्ष को  पाने के लिए।
मैंने अपना  लक्ष पा लिया
करोड़ों अरबों नक्षत्रों में
अपने  स्थान बना   लिया।"

" तुम भी ठान लो , दृढ़ संकल्प कर लो
मन में विश्वास भर लो और चल पड़ो,
 अपने आप पगडण्डी बन जायगी
लक्ष तुम्हारे पास आएगा एक दिन
मंजिल  तुम्हे मिल जायगी।

टीम टिमाते तारों को देख
शायद तुम भ्रमित हो क़ि -
तारा बहूत छोटा होता है।
पर यह सच नहीं
हर तारा एक सूरज है
सूरज से कई गुना बड़ा है
पर हमारी नज़र कमजोर है ,
 अत: दूर से उनकी बड़प्पन
हमको   नज़र नहीं आती  है " .

"बच्चों !
तुम अपने दिल की नज़र  कमजोर मत करो
दूर द्रष्टा बनो , उदार बनो
जाति ,धर्म की दूरी को दूर करो ,
कल्पना की उड़ान से प्रेरणा लो
सुनीता के संकल्पों को चुन लो
तुम भी विचरण करोगे चाँद सितारों में
सफ़लता तुम्हारे चरण चूमेगी
मंजिल तम्हारे पास आयगी
मंजिल तुम्हे मिल जायगी।"


रचना : कालीपद "प्रसाद "
© All rights reserved  








Wednesday 27 June 2012

चोरों की वस्तियाँ(Country of thieves)

                                                              चोरों की वस्ती

चोरों की वस्तियाँ हैं
एक चोर  राजा हैं, दूसरा चोर  मंत्री हैं !
 कोटवार चोर हो  ,चोर ही संत्री  हो जहाँ ,
जनता की संपत्ति , रास्ट्र की  संपत्ति ,   
सोचिये कितना निरापद हैं vaहाँ ! 

सीधा साधा एक नागरिक          
आवाज उठाया " चोरी बंद करो "         
"राष्ट्र की  संपत्ति , राष्ट्र को वापस करो "                               
नागरिक सभी उसके स्वर में स्वर मिलाया
राजधानी में  धरना दिया .   
राजा घबराया , मंत्री को तलब किया
मंत्री अपने काम में माहिर था .
देश के कानून जानता था
उसने एलान किया
" इस देश   में चोरी रोकने का कोई कानून नहीं हैं
और
चोरी का मॉल वापस करने का प्रावधान नहीं  हैं! "

जनता ने मंत्री से कहा ,
"ऐसा कानून बनाओं  जिसमे
चोरों को  शक्त सज़ा हो  , और
चोरी का मॉल वापस करने का प्रावधान हो ."

मन्त्री ने कहा ,
हम शक्त कानून का मसौदा बना देंगे
सदन के पटल पर भी रख देंगे
परन्तु वह पास हो जायगा
इसका गैरान्टी नहीं दे सकेंगे .
क्योंकि
कानून बनाने वाले जानबूझ कर
अपने पैर पर कुल्हाड़ी क्यों मारेंगे !

मंत्री जी ने कानून का ऐसा ख़ाका बनाया
जो किसी के भी समझ न आया .
किसी ने मंत्री को नौशिखिया
तो किसी ने बच्चा बताया .
किसी ने कहा "मंत्री जी ने ऐसा  जलेबी बनाया
जिसका हर मोड़ हर घेरा 
चोर पकड़ने के लिए नहीं
यह है चोर  के लिये रक्षा किला ".
उद्द्येश्य जब सदस्यों को समझ आया
व्हयस व्होट से उसे पास कराया .
ऊपरी सदन जिसमे अनुभवी, वुद्धिमान लोग हैं
वही किया जो मत्री जी चाहते थे ,
मसौदा को लटका दिया .

जनता भ्रमित हो रही है
उन्हें कुछ समझ नहीं आ रहा है
किसे विश्वास करे और किसे न करे
लल्लू पंजू को छोड़िये
दिग्गज भी हैं कठघरे में .
जिसने पुरज़ोर  समर्थन किया था नीचले सदन में
ऊपरी सदन में वे बदल गए .



रचना  : कालिपद "प्रसाद"  
©All rights reserved

Tuesday 19 June 2012

!ईश्वर !
ईश्वर    ही सत्य है . ईश्वर ही  नियन्ता है .उस पर विस्वास रखों . जो तुम्हारे नियन्त्रण में नही है , वह उसके नियंत्रण में  हैं .
ईश्वर  एक हैं . राम ,रहीम,गाड़ ,बाहेगुरू ,  अल्लाह ,  आदि  अलग अलग नाम से  अलग अलग लोग उसे  पुकारते-पूजते  हैं .श्री श्री राम कृष्ण  परम हँस जी  ने कहा  कि पानी को लोग अलग अलग भाषा में जल ,पानी , वाटर , पय इत्यादि नाम से पुकारते हैं .परन्तु वस्तु (जल ) तो एक है . ठीक वैसे ही भाषा ,देश , काल के अनुसार एक ही इश्वर के अलग अलग नाम हैं .
                             ईश्वर सर्वशक्तिमान हैं .  ईश्वर पर भरोषा रखना चाहिए , ईश्वर पर भरोषा रखने का मतलब धर्म पर या कर्म कांड पर भरोषा रखना नही है .धर्म एक रास्ता है जिस पर चलकर लोग ईश्वर तक पहुँचते हैं . रास्ता अलग अलग हो सकते हैं  परन्तु मंजिल (ईश्वर )एक हैं . आवश्यक नही कि तुम पूराने घिसे पिटे  रास्ते पर चलो और कर्मकाण्ड के जंजाल में पड़ो . तुम अपने नए रास्ते पर चल सकते हो जैसे कि गौतम बुद्ध  ने  किया ,महवीर जी ने किया ,स्वामी दयानन्द जी ने किया .
                            ईश्वर सर्वव्यापी हैं .मंदिर , मस्जिद , गिरजाघर ,गुरुद्वारे के चार दीवारों की परिधि में बँधे नहीं हैं . वह तो असीम हैं ,अनन्त हैं ,सर्वत्र हैं. तुम जहाँ खड़े हो जाओगे ,ईश्वर तुमसे पहले वहाँ होंगे . मनमें अगर तुम उनकी होने की अनुभूति प्राप्त कर सको तो तुम्हे ईश्वर को ढूडने के लिए  मंदिर , मस्जिद , गिरजाघर ,गुरुद्वारे में जाने की आवश्यकता नहीं है . तुम्हारे मन ही मंदिर है . तुम्हारे   अश्रु ही गँगाजल है , भावना  ही पूजा है , भावना ही पूजा का फूल है, भावना ही फूलों की खुशबु है .ईश्वर को वही चाहिए और कुछ नहीं .


ईश्वर सबका कल्याण करें .

कालीपद "प्रसाद "

Tuesday 17 April 2012

Shirdi Sai Baba ki Aarti

आओ साईं नाथा , आओ साईं नाथा ,
मेरे मन मंदिर में बसों साईं नाथा .
मुझको  अपने शरण में ले लो साईं नाथा
साष्टांग प्रणाम तुम्हे मेरे साईं नाथा ! 

ज्ञान हीन,  भक्ति  हीन, तंत्र मंत्र हीन मैं
क्या करूँ कैसे पूजूं , समझ नहीं आता
निज इच्छा करो कृपा दयामय दाता    
साष्टांग प्रणाम तुम्हे मेरे साईं नाथा !

दीनबंधु करुनासिंधु भक्त पीड़ा हन्ता
तुम ही बंधू, तुम ही सखा, तुमही माता-पिता
जग में  सभी  भीखारी है   दाता   साईं नाथा
साष्टांग प्रणाम तुम्हे मेरे साईं नाथा !

तुम्ही हन्ता तुम्ही पालक तुम्ही रचयिता
तुम्ही हर तुम्ही हरि तुम ही हो  विधाता  
जग में  तेरी इच्छा से ही सब कुछ होता
साष्टांग प्रणाम तुम्हे मेरे साईं नाथा !

जप तप हीन मैं कुछ नहीं आता
अहर्निशी अनगिनित गलती मैं करता
माफ करो गलती मेरे तुमहो विधाता
साष्टांग प्रणाम तुम्हे मेरे साईं नाथा !

लीला धर  लीला हेतु फकीर  रूप  धरा
तेरी कृपा पाकर रंक कुबेर बन गया
जो जैसा मागें वह वैसा ही पाता
साष्टांग प्रणाम तुम्हे मेरे साईं नाथा !

राजा या रंक हो  साधू या संत हो ,
साईं तेरी दरवार में सदा  चाकरी   करता
तुही प्रेरणा तुही कर्ता  तुही फल  दाता
 साष्टांग प्रणाम तुम्हे मेरे साईं नाथा !

दुःख हारी भय हारी पीड़ा हारी  साईं
मेरी पीड़ा हरो तुम अन्तर्यामी साईं
कोई नहीं और मेरा किस से कहूँ  व्याथा
साष्टांग प्रणाम तुम्हे मेरे साईं नाथा !

फल - फूल दुर्बा दल  से पूजूं साईं नाथा
पञ्च नदी जल मैं कहो कहाँ से लाता
अश्रु जल से चरण तुम्हारे धोउं साईं नाथा
साष्टांग प्रणाम तुम्हे मेरे साईं नाथा !


Rachna : Kalipad "Prasad"    (कालीपद "प्रसाद ")
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