Wednesday 26 September 2012

आपके लिए








मथकर शब्द महासागर को ,लाये हैं  कुछ नग चुनकर आपके लिए।
इन्हें कंकड़ कहें या हीरे मोती ,हैं सब आपके लिए।

हैं इसमें काँटे , फूल भी हैं ,फूल की ख़ुशबू आपके लिए।
इसमें हैं ईर्षा-द्वेष,झगड़ा-विच्छेद, किन्तु सन्धि सदभाव आपके लिए।

इसमें हैं शत्रु , शत्रुता भी है ,परन्तु मित्र औरमित्रता  है आपके लिए।
क्रोध,घमण्ड,दम्भ,अहंकार,अभिमान छोड़,प्यार का सन्देश है आपके लिए।

इसमें हैं करुणा , वीर ,वात्सल्य और है हास-परिहास ,
रौद्र ,विभत्स ,भयानक  छोड़ ,केवल भक्ति भाव है आपके लिए।

श्रृंगार ,साज-सज्जा ,माधुर्य और
 मीठी मुस्कान, सब हैं आपके लिए।

जूही ,चम्पा ,चमेली फूलों से सजी डाली
और श्रद्धा सुमन-माला है आपके लिए।

घृणा ,भय ,वितृष्णा को दूर कर,प्रेम की ज्योति जलाया है,
घर में, मन में , फैला अँधेरा दूर हो,यही दुआ है आपके लिए।

गरीब से प्रेम के दो बात कर लो ,भक्त हो जायेंगे सदा के लिए,
हज़ार दुआ निकलेगी दिल से उनके , और कृतज्ञता आपके लिए।

संकोच छोड़ ,दृढ़ संकल्प से हाथ बढ़ाओ दोस्ती के लिए
वुद्धि, विवेक ,सुविचार ,सफलता लायेंगे आत्मविश्वास आपके लिए।


कालीपद "प्रसाद "
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Monday 17 September 2012

स्मृति के पन्नों से





मधुस्मृति के पुरातन लतिका  को
जब झक -झोर डाली
वृक्ष से पके फल की भाँति
कुछ मीठी यादें  टपक पड़ी।
एक पर जब नज़र डाला
तो स्मृति के कुछ पन्ने खुले ,
देखा ,
मेरा गाँव प्यारा प्यारा
औरमैं था  गाँव का प्यारा।

 जंगल के किनारे
 गाँव के छोटे -छोटे बच्चे
जंगल में करते थे सैर सपाटे,
भर जाते थे मन प्राण उनके
वनफूलों के सौरव से।
कभी चंचल -चपल खरगोश के पीछे   भागते ,
कभी ताली बजाकर पक्षी उड़ाते,
कभी झर -झर बहती झरनों के जल  में भीगकर
जलकेली का आनंद लेते।

पर जीवन की आपा धापी में
गुजर गये चालीश साल ,
न आनंद ले सके प्रकृति का
न जान सके दोस्तों का हाल।
कर्मक्षेत्र से अवकाश मिला तो
चले गाँव की ओर ,
दोस्तों से मिलने और
देखने जंगल में मोर।

गाँव गये , मिले दोस्त से ,
और बतियाये देर तक प्यार  से।
मैंने कहा ," तुम्हारी कमी खलती थी अरसों से "
दोस्त बोले " अच्छा लगा तुम लौट आये ,
पर मन न लगेगा तुम्हारा यहाँ
छोड़ गये थे जो गाँव तुम, अब वो कहाँ ?
जहाँ हम घूमते थे,
छुपा -छुपी खेलते थे ,
मिटगई सब वो गाँव की यादें
कट गये जंगल सारे ,
न पीक है , न कोई पक्षी हैं ,
पशु-पक्षी हीन होगये जंगल ,गाँव हमारे।
निरीह प्राणी सब भाग गये हैं
केवल दो ही प्राणी बचे हैं।
अब यहाँ
रात को सियार हुआ हुआ चिल्लाते हैं,
दिन में सफ़ेद पोश चीते
डरावनी आँख  दिखाकर हुंकार भरते  हैं ।
उनके उत्पात से गाँव परेशान है।"

देखा गाँव , देखा जंगल
देखा इनमें परिवर्तन ,
किन्तु कहता हूँ ,"यह अच्छा है,
कम से कम ये असली रूप में हैं,
कौन सियार और कौन है चीता
इसका तुम्हे पहचान है।

हम तो कंक्रीट के जंगल में रहते है
वहाँ नहीं पता,
 कौन है सियार और कौन है चीता,
सब पर लगा है मुखौटा
कोई किसी को नहीं पहचानता ,
वहाँ शेर हो या सियार
सब पीते हैं पानी एक घाट पर।
अपने आपको समझते हैं सबसे होशियार
और दिखाते हैं आपस में अटूट प्यार ,
किन्तु एक दूसरे पर झपट मारने की
मौके का करते हैं इंतजार।

हैं यहाँ कुछ चीते कुछ सियार
पर वहाँ हैं सब नील सियार
ये नील सियार हैं बहुरूपिये
मौके के अनुसार
बन जाते हैं नील सियार
कभी चीता ,कभी शेर , कभी बब्बर शेर
और करते हैं
भीत , त्रस्त , निरीह प्राणी का शिकार।


कालीपद "प्रसाद"
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Tuesday 11 September 2012

मैं एक पथिक हूँ !





मैं पथिक अंतहीन अनजान राह का 


मैं एक पथिक हूँ
ऐसा पथ का
जिसका न कोई शुरू है , न कोई अंत।
सुना है ग्रह ,नक्षत्र ,तारे भी
चल रहे है अनन्त काल  से अपने अपने पथ पर
लेकिन उनमें  और मुझमें है एक अंतर।

वे थकते नहीं ,सोते नहीं ,चलते ही जाते हैं
अपने अपने निश्चित राह  में, निश्चित गति से।

मैं एक राही हूँ अन्जान राह के
अनगिनित राही चल रहे हैं साथ साथ
मैं भीड़ में हूँ या भीड़ मेरे साथ ?
नहीं पता ...
पर मैं चलता जाता हूँ
चलते चलते,  थक हारकर
रास्ते में ही सो जाता हूँ
एक गहरी, लम्बी निद्रा में।

न जाने कितने बार सोया
कितने बार जागा
कुछ भी याद नहीं मुझको।
पर एक बात मुझे याद है ...
"हर बार जब सोकर उठता हूँ
अपने को एक नये लिबास में ,
और एक नये  रास्ते में पाता हूँ।"

रास्ता नया, मुसाफ़िर नये
यार दोस्त नये ,हमसफ़र नया
उनसे नये वादे करता हूँ ,
चिरकाल साथ रहने की क़सम खाता हूँ ,
पर सब कसमे वादे टूट जाते हैं
सायंकाल में आँख मुदते ही(मृत्यु ),
 सब कुछ भूल जाता हूँ।

फिर एक नई राह ,नया सवेरा
करता है इन्तजार मेरा।(पुनर्जन्म )
नहीं पता कब तक चलते  जाना है
कितना रास्ता बाकी है ,
कहाँ जाना है ?
कहाँ इसका शुरू,कहाँ इसका अन्त ?
किसी ने न सुना ,  किसी ने न जाना इसका वृतान्त .
जिस से पूछो "जाना कहाँ है?'
उत्तर मिला "वहीँ जहाँ हमारे पूर्वज गए हैं।"
वहाँ बड़ा कड़ा पहरा है
जागते हुए  कोई जा नहीं सकता
चिर निद्रा में सोकर ही जा सकता है।


कालीपद "प्रसाद "
©  सर्वाधिकार सुरक्षित



Thursday 6 September 2012

संवेदनशीलता







लाजवन्ती 


छोटी-छोटी हरी-हरी पत्तियों  की हथेली फैलाकर
हवा के झोको से बलखाती हुई
मानो,
हंस-हंस , हाथ हिलाकर कहती सबको
छुओ ना, छुओ ना, कोई मुझको,
मुहँ छुपा लुंगी हथेली में
अगर छुओगे तुम मुझको। .
मैं नाजुक हूँ,
मैं शर्मीली हूँ ,
मैं संवेदनशील हूँ ,
मैं लाजवन्ती हूँ।



सूरजमुखी



एक  सूरजमुखी का फूल
सूर्य दर्शन में आकूल
सुबह सुबह पूर्व दिशा में
सूरज की प्रतीक्षा में
सहस्र स्वर्ण पंख फैलाकर
अविकल सूर्य की प्रतिबिम्ब  बनकर
खड़ा है लोहित  किरणों की स्वागत में।

पूरब के उदयाचल से पश्चिम के अस्ताचल
सूरजमुखी निहारता सूरज को हर पल ,
सूरज के अस्त होते ही
सूरजमुखी झुक जाता है,
नत मस्तक होता है, दू:ख से
यह प्रकृति का सम्वेदनशीलता नहीं, तो और क्या है  ?

पशु-पक्षी, वृक्ष-लता
सब में है सम्वेदनशीलता ,
मनुष्य संवेदनशीलता में शीर्ष में है
पर उसमे इतना विरोधाभाष क्यों है ?
वह दूसरे का खून का प्यासा क्यों है?
समझ में नहीं आता।

बंदूक से निकली  गोली
किस दिशा में और कहाँ चली ?
किसको घायल किया ,किसको मारा ?
हिन्दु ,मुसलमान ,शिख  या इशाई को .......
नहीं पता ,नहीं पहचानती  वह किसी को
पहचानती केवल उसको---
जो उसे चलाता है और
जो उसके सामने आता है।
चलाने वाले से आदेश लेती  है
सामने वाले का सीना को छलनी करती है।

आतंकी कहता है वह मुसलमान है
मुसलमान के लिए खून बहाता  है ,
उलेमा कहते हैं यह सच नहीं,
निरपराधी का खून  बहाना
मुसलमान का  ईमान नहीं।

ताज , ओबेराय को मिटाना चाहा वे
पर मिटा न पाया अस्तित्व इनकी।

ख़ुद मिट गए वे जिनके लिए
मुहँ फेर लिए  सब आका उनके, और
दो गज जमीं न मिली कब्र के लिए।

ऐ भटके हुए इंसान ! संभल जाओ अभी
मत मानो हमें हिन्दु ,मुस्लिम , सिख ,ईसाई
हम सब है भारत माँ के सन्तान , है भाई-भाई।

तुमने,
परिवार से रिश्तों का महत्व न समझे,  न सही
समाज से सदाचार न सीखा , न सही
धर्म से प्रेम का पाठ न सीखा , न सही
पर इंसानियत को मत भूलो तुम
अपने को' भटके हुए इन्सान' समझो ,आतंकी नहीं
लौटने का मार्ग खुला रहेगा  ,बन्द नहीं।



कालीपद "प्रसाद "

सर्वाधिकार सुरक्षित





Monday 3 September 2012

प्रेम क्या है ?**







जिसने भी किया "प्रेम "को सब्द जाल में बाँधने की  दावा
निकल गया "प्रेम' उस बंधन से जैसे बंध  मुट्ठी  से हवा।

"प्रेम" न तो कोई हवा , न तरल , न घन रूप  
मानता नहीं कोई बंधन , जात ,धर्म या रंग रूप।

"प्रेम "  अदृश्य है ,पुष्प गंध जैसा भर देता है मन
एक एहसास है ,एक अनुभूति है , कहते हैं ज्ञानीजन।

कितना भी प्रयास करो ,कोई भी दो परिभाषा
शब्दों में व शक्ति कहाँ , बोल पाए " प्रेम " की भाषा।

"प्रेम "  दिल में रहता है ,यह ख़ुशबू   है दिल का
भरलेता है अपने आग़ोश में, जैसे  ख़ुशबू गुलाब का।

"प्रेम" और "ईर्षा"  सौतन हैं ,रहती साथ -साथ दिल में
रिश्ता उनके वैसे  ही है जैसे , दो तलवार एक म्यान में।

सब चाहते हैं जीवन में उसके, "प्रेम" की धारा बहती रहे
दुष्ट "ईर्षा" घुसकर औरों में ,खड़ी हो जाती प्रेम के मार्ग में।

पर निकली जो एकबार उद्गम से ,रुकी नहीं कभी प्रेम की धारा
प्रमाण उसका है अनेक जैसे , लैला- मजनू और हीर-राँझा।

"ईर्षा" ने मार डाला लैला- मजनू जैसे कितने प्रेमी युगल को
पर "प्रेम" हो गया अमर , एहसास है इसका सारे जग को।

"प्रेम" शाश्वत है ,अदृश्य है ,
पर एहसास इसका है प्रकृति में
माँ के प्रगाढ़ चुम्बन में और
 उसके  गुन गुनाते  लोरी में।

चोंच से दाना चुगाते चिड़ियों में,
  बछड़े को दूध पिलाते गायों में
प्रेमी युगल के विरह में ........
............., उनके पुनर्मिलन में ,

फूलों पर मंडराते भौरों में ,
 राखी बांधते  भाई बहन की आँखों में,
न जाने कहाँ .....??? 
कितनो में ......???
 किस रूप में .....???

कोई नहीं जानता प्रेम की प्रकृति
केवल है  एक एहसास ...
एक अनुभूति ...!.

"प्रेम" का बीज  दिल में रहता है ,
जब फूटता है ....,
बह जाता है झरनों की तरह कल-कल ,झर -झर ,
शब्दों का हो या  और का ,बंधन नहीं कोई  उसे स्वीकार ,
"प्रेम" उन्माद है , उन्मुक्त है ,वेगवान है ,
आपको है, मुझको  है ,  सबको है ,एहसास यही  ,
 इसके सिवा और कुछ नहीं , प्यार है यही ।

प्यार अँधा है, प्यार ज्योति है ,
जब जल उठता है .......
जग-मग हो जाता है मन का आँगन
मन-मयूरी नाच  उठता है और
पतझड़ में एहसास होता है वसन्त का आगमन,
चंचल और बेकाबू हो जाता है मन,
 यही है प्यार !
इसको कौन करेगा इंकार ?

प्रेम श्रद्धा है ,प्रेम भक्ति है
प्रेम ईर्षा है ,प्रेम शक्ति है
प्रेम त्याग है , वलिदान भी है
प्रेम स्वार्थ है ,नि:स्वार्थ भी है
प्रेम संजीवनी है !
मुमूर्ष को जीवित करने वाला
"प्रेम" महा मृत्युंजय मंत्र है।


कालीपद "प्रसाद"
©  सर्वाधिकार सुरक्षित