Sunday 27 April 2014

रात्रि (सांझ से सुबह )


                        








                              

 स्वर्णिम किरणों को समेटकर सूरज
छिप गए जब पश्चिम के अस्ताचल
काली चादर ओढ़ लिया धरती ने
अँधेरा छाया सारे जहाँ ,आसमां, उदयाचल |

संध्या ने घरों में चिराग जलाया
जंगल में लगा जुगनुओं का पहरा
अनन्त आसमान का अँधेरा गहरा
चाँद ने चाँदनी से उसका श्याह हरा |

शब्- ए- तारिक  में  चाँद  ने
आसमान को तारों के हवाले कर दी
धरती पर जुगनू आसमान में तारे
दोनों  में  जमी  खूब जुगलबंदी |

ताब  सुबह  महफ़िलें  सजती रही
अंजुम जुगनुओं के द्वन्द चलती रही
कौन जीता कौन हारा तय नहीं हुआ
पूर्वांचल में प्रभात किरण का आगौन हुआ |

उदयगिरी पर जब सहस्रभानु का उदय हुआ
काली चादर रजनी का धुलकर सफ़ेद हुआ
रात्रि विराम से रवि –किरण प्रखर हुआ
फैलकर चहुँ ओर रविराज्य कायम किया |  

निशाचरी प्रवृत्ति पर लगा विराम
जुगनू और तारों को मिला विश्राम
चिराग की अंतिम लौ ने मुंदलिया आँख
उगते सूरज के सामने हुए नत मस्तक |


कालीपद 'प्रसाद '
सर्वाधिकार सुरक्षित

 

Wednesday 16 April 2014

दुनिया –एक हाट!



चित्र गूगल से साभार

 
दूर दूर से लोग आते हैं,
सप्ताह में  एक बार ,
कुछ होते है दुकानदार
बाकी सब हैं खरीददार |
दस बारह गाँव के बीच
होता है केवल एक हाट ,
सप्ताह भर का खरीदी करते
पास नहीं कोई दूसरा हाट |
क्रय विक्रय जिसका हो जाता है
जिसका होता है काम समाप्त ,
समेटकर अपना साजो सामान
पकड़ लेता है घर का पथ |
एक साथ नहीं आते हैं हाट में
एक साथ नहीं जाते हाट से ,
यही रीति चली आई है
हर काल में अनादि काल से |

दुनिया भी एक हाट है....
भिन्न नहीं है गाँव के हाट से,
किन्तु कुछ नियम अलग है
गाँव के उस छोटे हाट से |
ग्रामीण हाट में विक्रेता वस्तु लाते घर से 
खरीददार आते हैं लेकर साथ पैसे
निराला है दुनिया का यह हाट 
हर कोई आते मुट्ठी बांधे खाली हाथ |
मैं भी इस हाट में आया हूँ
किन्तु, खाली हाथ आया हूँ ,
क्या बेचुं क्या खरीदूं मैं
कुछ भी तो नहीं लाया हूँ |
यहीं कमाकर कुछ भाव–भावना
रिश्तों का घरोंदा मैं बनाया था
यही  होगा पाथेय मेरा
भरोषा और दृढ विश्वास था |
भाव- भावना , विश्वास –भरोषा
जीवन भर का संचय था मेरा
रिश्तों का धागा नाजुक था
फिर भी मजबूती से बांधे रखा |
समय का चक्र घूमते गए
कुछ रिश्ते टूटते गए ,कुछ बिखर गए
भाव –भावना निरर्थक  हुए
पैसा ही सबके भगवान हुए |
रिश्तों का कंकाल बचा है
भावनाओं की बेल सुख रही है
न अपना ,न पराया
न घरवाले , ना बाहरवाले
नहीं करते कोई इसका कदर|
बचाकुचा भाव-भावना मूल्य हीन है 
नई पीढ़ी में कोई नहीं है लेनदार
उठ जाना होगा जब इस हांट से
छोड़ जायेंगे इन्हें यहीं पर|

कालीपद "प्रसाद "
सर्वाधिकार सुरक्षित