Wednesday 30 July 2014

माँ है धरती !

चित्र गूगल से साभार

                                                                   
गर्मी थी तो दिन था शुष्क ,पर उज्वल
पवन भी था उन्माद ,वेगवान प्रवल ,
न जाने कहाँ से बहा ले आते
चंचल इच्छाओं के जलद बादल |
उमड़ घुमड़ कर नाचते कभी
गरज-गरज कर सबको डराते कभी
दामिनी दमक होती हृदयाकाश में
बादल जब बरसते जमकर क़भी |
धरती की प्यास बुझाने हेतु
मस्ती में बरस जाता कभी
नदी के दो कुल डूब जाते
मुसलाधार जब बरसते कभी |
धरती पीती एक एक बूंद जल
अपनी तीव्र प्यास को बुझती
होकर तृप्त भीतर बाहर से
करती असीम आनंद की अनुभूति |
अनुपम इस आनंद को धरती
नहीं करती यहाँ पर इसकी इति
कई गुण करके इस आनंद को
संतानों को लौटाती यह धरती |
पशु,पक्षी,वृक्ष,लता, त्रिनादी*वनस्पति
धरती पर उत्पन्न,सब हैं उनकी संतति
जीवन के आगाज़ से मृत्यु तक
पोषण करती हमें यह धरती |
राजा या रंक हो,कोई भेद भाव नहीं करती
जीवन में या अवसान में सबका ख्याल रखती
मृत्यु के बाद भी हर मानव को प्यार करती
अपनी गोद में प्यार से सुलाती है धरती |
बिना कोई प्रतिवाद किये
हर शोषण सहती है धरती
इन महान गुणों के कारण
सब कहते हैं हमारी माँ है धरती |


कालीपद "प्रसाद "
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Saturday 26 July 2014

सावन जगाये अगन !**

                        
 




 रिमझिम बरसकर सावन
मन में जगाती अगन ,                  
बैठी है मिलने की आस लिए
पर नहीं आये बेदर्दी साजन |
बादल आये , आकर चले गए
ना ही पिया का कोई सन्देश लाये ,
रूककर यहाँ कुछ तो बतियाते,
उनके लिए मेरे सन्देश ले जाते ......
मैं बताती कैसे मेरे दिन बीते
विरह का अगन का अहसास कराते
पलकों ही पलकों में कटती है रातें
याद में उनके दिन बीत जाते
उनको पहुँचा देती यह प्रश्न मेरे
“बे रुखी क्यों इतना साजन मेरे ?”

कभी सोचती गर पंख होता
उड़कर जाती चिड़िया जैसा
नहीं तड़पती विरह के ज्वाला में
कष्ट ना झेलती चकोर जैसा |
कभी सोचती हूँ बादल बन जाऊं
हवा के साथ साठ उड़ती जाऊं
दिल में लिए अभिमान का बादल
जमकर बरसू पिया के ऊपर |
पर मैं चाहुँ दिल से यही
परदेशी पिया घर लौट आये
लेकर दिल में प्यार का सागर
उस सागर में मुझे डुबो जाये | 

कालिपद "प्रसाद "
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Sunday 20 July 2014

कर्मफल |






जानता हूँ मैं ,पाप-पुण्य नाम से ,जग में कुछ नहीं है |
कर्म तो कर्म है ,कर्म-फल नर, इसी जग में भोगता है |
कर्मक्षेत्र यही है, ज़मीं भी यही है, कोई नहीं अंतर ,
उद्यमी अपने उद्यम से ,बनाते हैं बंजर ज़मीं को उर्बर |
निरुत्सुक,निकम्मा ,आलसी सोते रहते हैं दिवस रजनी ,
बाज़ीगर-तगदीर खेलती है उन से आँख मिचौनी |
वही है धन संपत्ति का अधिकारी,जो है कर्मवीर,
आलसी होते हैं कँगाल,पर होते है वाक् –वीर |
कर्मवीर ने काम किया ,जिंदगी में आमिरी भोगा ,
उसने आमिरी भोगकर कोई पुण्य नहीं कमाया |
आलसी ने कुछ काम नहीं किया ,गरीबी झेला
गरीबी झेलकर उसने कोई  पाप नहीं किया |  
अपने अपने कर्मफल चखकर दोनों ने भरपूर जिया
मिथ्या पाप-पुण्य का अर्थ को निरर्थक प्रमाण किया |
साधू सन्त देते हैं परिभाषा कल्पित पाप-पुण्य का
वही करते हैं दुष्कर्म,भोगते हैं फल अपने दुष्कर्मों का |
कर्मफल को पाप- पुण्य का नाम देकर
खुद करते हैं हर कर्म, जनता को भ्रमित कर |
कर्म जो किसी को दुखी करे ,कहा उसको पाप
ख़ुशी देनेवाले कर्म हो जाते हैं पुण्य, निष्पाप |
पाप की चिंता छोडो ,पर-कष्टदायी कर्म से डरो
पुण्य की बात भूलो ,कुछ जन कल्याण करो |

कालीपद "प्रसाद "
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Tuesday 8 July 2014

मेरा जन्म !



चित्र गूगल से साभार


मेरा जन्म !

अँधेरी कोठरी में
घोर अन्धकार में
तुम्हारी कृपा प्रकाश था
मुदित नेत्रों से भी
मैं देख सकता था |
मात्री गर्भ में हे ईश्वर!
तुम ने तिल-तिल जोड़कर
धीरज से मुझे बनाया
यतन से मेरा रूप सवांरा ,
जीवन के प्रतीक
स्वांस प्रस्वांस दिया |
जीवन का दूसरा पहचान
हर पल,हर घडी धड़कते
दिल की धड़कन दिया |

तुम मुझमें समाहित हो
जानूं ! वही निरंतर धड़कन हो,
धड़कन रुक जाती है
जब तुम रूठ जाते हो |
जब तुम मुझ में हो
तब किसी काम का मुझे
कोई डर  क्यों  हो ?
मुझ से कोई अच्छा या बुरा काम हो
ऐसा हो नहीं सकता ,
वही करता हूँ मैं
जो तुम करवाते हो |

मानव शिशु सब हैं एक बराबर
नहीं है नवजात में कोई अंतर ,
परिवार बनाता है उसे मेहनती
और किसी को आलसी ,लानती,
वही बनता उसे मज़हबी
 किन्तु ईश्वारेच्छा से अजनबी  |

करना तुम इतना कृपा
हे दयालु! दया  निधान ,
कराना कुछ काम मुझ से ऐसा
जिसमें छिपा हो जन कल्याण |


धन्य हो  मेरा परलोक जीवन 
धन्य हो  मेरा इहलोक जीवन 
पूर्ण करने तुम्हारी नेक इच्छा 
तुम्हे समर्पित दोनों जीवन |

ना जानूं ,क्या अच्छा है ,क्या बुरा है
नहीं जानता जग का आचार विचार
तुमको मैं जानूं सब कर्मो का अंत
अनतिम पढाव हर नदी का जैसे है महासागर |

कालीपद 'प्रसाद '
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